Sunday, December 9, 2012

देखा था गिरगिट को कभी



देखा था गिरगिट को कभी रंग बदलते हुए ।
ना देखा था नेताओं को यूं  पल-पल बदलते हुए ॥
बडे बडे नेता हुए है अपने भारत देश में,
कैसे देख पाएंगे वो देश को फ़िसलते हुए ॥
कभी अपनी बात पर कायम नही रह पाते,
लाज़ ना आती इनको जनता में चलते हुए ॥
कल तक माया-मुलायम थे एफ़डीआई के विरोधी,
आज देखा इनको कांग्रेस के साथ चलते हुए ।
आने दो चुनाव का मौसम इक बार,
देखेंगे ये नेता फ़िर, खुद को हाथ मलते हुए ॥

Monday, October 15, 2012

क़ानून मंत्री का क़ानून



        अब कांग्रेस सरकार का असली रंग सामने आ रहा है । ये सरकार अपने वफ़ादार मंत्रियों को बचाने के लिये किसी भी हद को पार कर सकती है । एक ताजा उदाहरण कानून मंत्री सलमान खुर्शीद जी के रूप मे हमारे सामने है । जब हमारे देश के माननीय कानून मंत्री ऐसे कृत्य करेंगे, तो बाकी अफ़सरों के बारे मे तो सोचने की आवश्यकता ही नही है । अगर उन पर लगाए गए आरोप निराधार है, तो जब कैग के सदस्य ऑडिट करने गए, तो वहां उन्हे कोई भी क्यों नही मिला और जब कैग ने मंत्रालय का दरवाजा खटखटाया, तो मंत्रालय ने भी अपना पल्ला झाड लिया । इसके लिए मंत्रालय भी जिम्मेदार है, जिसने तथाकथित एनजीओ को 71 लाख रूपये का अनुदान दे दिया ।
        अगर कोई मंत्री जी की शिकायत करने जाता है तो उसका हाल वही होगा जो दिल्ली की सडको पर विरोध कर रहे लोगो का हुआ है । एक तरफ़ तो मंत्री जी शारीरिक रूप से अक्षम लोगो के लिये एनजीओ चलाते है , वहीं दूसरी तरफ़ उन्ही विकलांग लोगो पर लाठियां बरसाई जाती है । ये कहां का कानून है और कहां का न्याय ।

Sunday, October 14, 2012

वाड्रा बनाम केजरीवाल



अरविंद केजरीवाल ने वाड्रा पर कुछ आरोप लगाए थे । उन आरोपों का विरोध तो कांग्रेस पार्टी के सारे मंत्री कर रहे है लेकिन कोई भी अपनी सफ़ाई मे सबूत पेश नही कर रहा है । अरविंद जी ने जितने भी आरोप लगाए है उनके समर्थन मे सबूत भी पेश किए है, इसलिये उनकी बात को निराधार नही कहा जा सकता । कांग्रेस वाड्रा के समर्थन मे सबूत अवश्य पेश करेगी लेकिन कुछ समय बाद, क्योंकि सबूतों को बनाने मे भी तो समय लगता है । सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि सारे मंत्री अपने आपको सोनिया गांधी परिवार का हितैषी दिखाने की भरसक कोशिश कर रहे है । देश की जनता ने इन्हे गांधी परिवार की सुरक्षा के लिए नही, देश की रक्षा के लिए चुना था ।
सच्चे इंसान को कभी किसी से डरने की आवश्यकता नही होती । अगर वाड्रा पर लगाए गए आरोप गलत होते तो अब तक वो अरविंद जी का गला दबोच चुके होते । अगर अरविंद जी की बाते झूठी है, तो वाड्रा को क्या आवश्यकता थी अपना फ़ेसबुक अकाउण्ट बंद करने की, उन्होने अपने खिलाफ़ लगाए गए आरोपों का जवाब क्यों नही दिया । वाड्रा ने तो ये भी कहा है कि अरविंद जी उन्हे बदनाम कर रहे है । अगर वास्तव मे ही वो आपको बदनाम कर रहे है तो आप उनके खिलाफ़ मानहानी का मुकदमा दायर करिए और सबको बताइए कि आप पाक साफ़ है । लेकिन आप ऐसा नही करेंगे, क्योंकि ये आप भी जानते है कि अरविंद जी के आरोप झूठे नही है ।
  ऊपर से वाड्रा जी हमारे देश को 'बनाना रिपब्लिक' कह रहे है । बनाना रिपब्लिक मतलब राजनैतिक रूप से अस्थिर देश । लेकिन ये जो राजनैतिक अस्थिरता हमारे देश मे पसरी हुई है उसका कारण भी उनकी सास ही है ।

Sunday, September 9, 2012

धूमिल होती संसद की गरिमा



संसद भवन में सपा और बसपा सांसदों के बीच हुई हाथापाई से भारतीय संसद की गरिमा को गहरी चोट पहुंची है । क्या अब यही एक रास्ता बचा है विवादों को सुलझाने का, अपनी बात मनवाने का। किसी भी देश मे लोकतंत्र की स्थापना का अर्थ ही यह है कि आपसी विवादो को विचार-विमर्श करके सुलझाया जाए ना कि बाहुबल का प्रयोग करके । संसद के सदस्य पूरे देश का प्रतिनिधित्व करते है । उनसे इस तरह के शर्मसार करने वाले व्यवहार की आशा नही की जाती । क्या ये लोग कभी सोचते है कि इसका क्या प्रभाव होगा देश के लोगो पर । अगर कोई व्यक्ति सांसदो के व्यवहार पर टिप्पणी कर दे, तो इससे संसद की छवि खराब हो जाती है लेकिन उनके इस आचरण से संसद की छवि पर कोई प्रभाव नही पडता । अगर अन्ना हजारे जी सांसदो के बारे मे कुछ कह दे तो पूरा का पूरा संसद भवन उनके खिलाफ़ खडा नजर आता है, लेकिन राज्यसभा मे हुई इस हाथापाई से किसी को कोई परेशानी नही है । क्या होगा हमारे देश का भविष्य ??

Wednesday, August 8, 2012

अंतिम विकल्प



        टीम अन्ना के राजनीति मे प्रवेश करने के निर्णय को सभी समाचार पत्रों ने प्रमुखता से प्रकाशित किया है, परंतु ज्यादातर पत्रों मे इस खबर को नकारात्मक दृष्टिकोण के साथ दिखाया गया है । मीडिया का कर्तव्य होता है सच्चाई को जनता तक पहुचाना, ना कि खबरों को तोड-मरोड कर पेश करना । सरकार के ध्यान ना देने के कारण अन्ना हजारे जी ने राजनीति मे आने का ऐलान किया । अब अन्ना जी के पास यही एकमात्र विकल्प शेष है । जब हमारी गूंगी-बहरी सरकार ना कुछ देखने को तैयार है, ना कुछ सुनने को तैयार है, जब नौ दिन  के अनशन के बाद भी सरकार की ओर से वार्ता करन्र के लिए कोई पहल नही हुई, तब अन्ना जी के पास क्या विकल्प बचता । पुलिस ने तो यहां तक कह दिया कि अगर अनशन स्थल पर किसी सदस्य के साथ कोई दुर्घटना हो जाती है , तो उसके लिए आयोजक ही जिम्मेदार होंगे । सरकार की ज्यादती के सामने जान देने से तो अच्छा है कि उसके खिलाफ़ लडा जाए । अन्ना जी का राजनीति मे उतरने का फ़ैसला पूर्ण रूप से उचित और जनसमर्थित है । वैसे भी ज्यादातर नेता गाहे-बगाहे कहते ही रहे है कि अन्ना को राजनीति मे आना चाहिए । हो सकता है कि अब उन्ही नेताओ को अन्ना जी के इस फ़ैसले से परेशानी हो रही हो । 

Wednesday, July 25, 2012

ना काहू से दोस्ती , ना काहू से बैर



आखिर एक बार फ़िर से ये स्पष्ट हो गया है कि राजनीति मे ना तो कोई किसी का दोस्त होता है और ना ही दुश्मन । कल तक तो ममता बनर्ज़ी संप्रग का विरोध कर रही थी और विरोध भी इस तरह से कि लोगो को लगा था कि चाहे कुछ भी हो जाये मगर दीदी प्रणब मुखर्जी को समर्थन नही देगी । लेकिन आज ममता बनर्जी दादा के समर्थन मे बोल रही है । कैसे विश्वास करे जनता ऐसे नेताओ का, जो अपनी ही बात पर नही टिक पाते । ऐसा ही कुछ दिनों पहले मुलायम सिंह ने किया था । पहले तो मुलायम सिंह ने दीदी के साथ मिलकर डा0 कलाम के नाम पर सहमति जताई और कुछ समय बाद सोनिया गांधी के कहने पर प्रणब मुखर्जी को समर्थन देने की घोषणा कर दी । इस तरह अपनी ही बातो से पलटकर ये नेता लोग साबित क्या करना चाहते है । क्या जनता को बेवकूफ़ बनाने मे इन्हे आनंद मिलता है या फ़िर ये लोग चाहते है कि आम जन नेताओ पर यकीन करना ही छोड दे । कुछ समय और पीछे चले जाये तो राहुल गांधी का उदाहरण सामने आता है । अपने चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी  ने समाजवादी पार्टी का घोषणा पत्र फ़ाड दिया था । और आज सपा और कांग्रेस के मधुरतापूर्ण संबंध किसी से छिपे नही है । इन सब घटनाओ से तो यही स्पष्ट होता है कि ये नेता लोग अपने फ़ायदे के लिए और कुर्सी पाने के लिए किसी का भी साथ दे सकते है । क्या हम जाने-अनजाने मे अठारहवी सदी की और जा रहे है जहां पूरा भारत छोटे-छोटे टुकडों मे बटां हुआ था और इन छोटे-छोटे  प्रांतो के नेता अपने फ़ायदे के लिए किसी से भी मिलने मे नही हिचकिचाते थें । हमारे आजकल के नेता भी तो यही कर रहे है । 

Sunday, July 1, 2012

इंजीनियरिंग की एकल परीक्षा पद्धति : पक्ष एवं विपक्ष



        बारहवी की परीक्षा किसी भी छात्र के भविष्य के लिये एक अहम एवं निर्णायक मोड होती है । बारहवी के बाद छात्र विभिन्न पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेते है जैसे - मेडिकल, इंजीनियरिंग , बीएससी, एमएससी, प्रोफ़ेशनल कोर्स इत्यादि । इंजीनियरिंग एवं मेडिकल के प्रति छात्रों का रूझान कुछ ज्यादा होता है । हाल ही के वर्षो मे प्रोफ़ेशनल कोर्सज की बाढ सी आ गई है लेकिन फ़िर भी इंजीनियरिंग  के प्रति छात्र आज भी उतने ही आकर्षित है । इंजीनियरिंग  मे दाखिले के लिये जो सबसे महत्त्वपूर्ण एवं कठिनतम परीक्षा मानी जाती है वो है आईआईटी-ज़ेईई की परीक्षा । एआईईईई की परीक्षा अपेक्षाकृत कम कठिन होती है । जब छात्रों को आईआईटी मे प्रवेश नही मिलता, तो वो एआईईईई के भरोसे रहते है । एआईईईई की परीक्षा मे भी वांछित सफ़लता ना मिल पाने पर छात्रो को स्टेट बोर्ड का सहारा तो होता ही है । लेकिन अब माननीय कपिल सिब्बल जी ने और हमारी सरकार ने यह नियम बनाया है कि इंजीनियरिंग  मे प्रवेश के लिये छात्रों को एक ही परीक्षा देनी होगी । इस परीक्षा के अंतर्गत एक ही दिन मे दो पेपर होंगे - मेन एवं एडवांस । मेन परीक्षा पास करने वाले पहले 50000 छात्रों के एडवांस पेपर का मूल्यांकन किया जायेगा । आईआईटी की मेरिट बनाने मे 50% भारांक एडवांस परीक्षा को और शेष 50% भारांक बारहवी की परीक्षा को दिया जायेगा । जबकि एआईईईई की मेरिट तैयार करने मे 30% भारांक मेन परीक्षा को, 30% भारांक एडवांस परीक्षा को एवं 40% भारांक बारहवी की परीक्षा को दिया जायेगा । अभी तक किसी भी छात्र को आईआईटी की परीक्षा मे बैठने के लिए यह आवश्यक था कि उसने बारहवी 60% अंको के साथ (अनु0 जाति/जनजाति के लिए 55%)उत्तीर्ण की हो । बारहवी के अंको को मेरिट बनाने मे कोई स्थान नही दिया जाता था । लेकिन अब से ऐसा नही होगा । परीक्षा पद्धति मे हुए इस बदलाव के पक्ष एवं विपक्ष दोनो मे ही तर्क आ रहे है ।
सरकार का कहना है कि एक परीक्षा होने से छात्रों का तनाव कम होगा । लेकिन मै इस बात से बिल्कुल भी सहमत नही हूं । मात्र एक परीक्षा होने से छात्रों पर दबाव और ज्यादा बढ जायेगा । ये परीक्षा उनके लिये जीवन-मरण का प्रश्न बन जाएगी । मान लीजिये कि परीक्षा वाले दिन किसी छात्र का स्वास्थ्य बिगड जाता है या किसी और कारण की वजह से वो अच्छे से परीक्षा पास नही कर पाता, तो इस स्थिति मे उसका एक वर्ष बर्बाद हो जाएगा । पहले 3-4 परीक्षाए होती थी । अगर एक परीक्षा खराब हो जाए तो दूसरी परीक्षा से उम्मीद रहती थी । परन्तु अब तो छात्रों के पास कोई विकल्प ही नही बचेगा । 
आईआईटी एव एआईईईई के लिए मेरिट तैयार करने मे बारहवी के अंको को महत्व देने का कोई औचित्य नही है । सरकार का कहना है कि इससे छात्र स्कूल जाने लगेंगे । कपिल सिब्बल जी दिल्ली मे बैठकर अगर ये सोचते है कि इससे छात्र स्कूलों की तरफ़ आकर्षित होंगे तो हम उनसे पूछते है कि कौन से स्कूल जाएंगे वो छात्र यूपी, एमपी और बिहार में, जहां विद्यालय के नाम पर चार कमरे है और विद्यालय को संभालने के लिए एक अध्यापक ।  दिल्ली मे वातानुकूलित कमरे मे बैठकर ये कहना बहुत आसान लगता है कि छात्रो को विद्यालय जाना चाहिये । मै भी मानता हूं कि छात्रो के सर्वांगीण विकास के लिए उनका विद्यालय जाना आवश्यक है । लेकिन वहां बैठने के लिए कमरे और पढाने के लिए अध्यापक तो हो । सिब्बल जी पहले आप विद्यालयों का मुआयना कीजिए , विद्यालयों को सुचारू रूप से चलाने के लिए आवश्यक सुविधाओ की व्यवस्था कराइये और पढाने के लिए अध्यापको का इंतजाम करिये, तब हम देखेंगे कि छात्र विद्यालय क्यों नही जाते । यूपी, बिहार मे तो छात्र स्वाध्याय करके, खुद मेहनत करके आईआईटी एव एआईईईई जैसी कठिन परिक्षाओं को उत्तीर्ण करते है । अगर बारहवी के अंको को महत्व दिया जायेगा तो ये उनके साथ अन्याय होगा । 
भारत मे शिक्षा प्रणाली एक समान नही है । यहां पर छात्र विभित्र बोर्ड्स द्वारा बारहवी की परीक्षा देते है जैसे - सीबीएसई, आईसीएससी एवं विभित्र स्टेट बोर्ड्स । सीबीएसई एवं आईसीएससी मे अंको का प्रतिशत स्टेट बोर्ड्स की तुलना में बहुत अधिक होता है । इसका कारण विभित्र बोर्ड्स की मूल्यांकन पद्धति का भित्र-भित्र होना है । एक तरफ़ जहां छात्र सीबीएसई मे 98-99% तक अंक प्राप्त कर लेते है , वहीं पर स्टेट बोर्ड्स (यूपी, एमपी,बिहार ) मे छात्र 91-92% पर ही सिमट जाते है । इसके अतिरिक्त सीबीएसई मे 90% से अधिक अंक पाने वालो का प्रतिशत बहुत अधिक होता है जबकि स्टेट बोर्ड्स मे 80% से अधिक अंक पाने वाले छात्रो का प्रतिशत उतना नही होता । अगर बारहवी में अंको को मेरिट में स्थान दिया जाता है तो उसमे सीबीएसई बोर्ड के छात्र ही ज्यादा होंगे । इस से नक़ल करने वाले  और कराने वाले दोनों ही को बढ़ावा मिलेगा । आए दिन विभिन्न परीक्षाओ के पर्चे लीक होते रहते है। छात्र यही चाहेंगे की किसी भी तरह बारहवी में उनके अच्छे अंक आ जाए . इसके लिये वो अनुचित तरीको का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकेंगे । 
     सरकार चाहती है कि कोचिंग संस्थानों पर लगाम लग जाए। लेकिन क्या सरकार वास्तव में इसके प्रति दृढप्रतिज्ञ है ? बिलकुल नहीं । इस से तो कोचिंग व्यवसाय में और वृद्धि होगी। कोचिंग संस्थान छात्रो को ११वी , १२ वी की तैयारी कराएंगे और मुनुफा कमाएँगे । अगर सरकार वास्तव में चाहती है कि कोचिंग संस्थान बंद हो जाए तो इसका सिर्फ एक ही कारगर  उपाय है कि छात्रो को स्कूल में उस स्तर की पढाई कराई  जाए जैसी  कि कोचिंग संस्थानों में होती है । तभी छात्रो का रुझान विद्यालयों की ओर बढेगा . इसके लिए सरकार को प्रयास करना चाहिए ।
        ज्यादातर बड़े घरो के बच्चे चाहे वो औद्योगिक घरानों से हो, फिल्म स्टारों से सम्बंधित हो, या राजनेताओ से सम्बंधित हो,विदेशो में शिक्षा ग्रहण करते है । वैसे तो सभी राजनेता बयान कुछ इस तरह देते है कि भारत की शिक्षा पद्धति विश्व स्तर की है, हमारे देश के बच्चे दुनिया को कड़ी टक्कर दे रहे है लेकिन अपने बच्चो को ये विदेशो में ही पढ़ते है । इसका कारण यही है की खुद इन लोगो को भी भारत की शिक्षा पद्धति पर यकीन  नहीं है। अगर ये राजनेता वास्तव में चाहते है की लोग यहाँ की शिक्षा प्रणाली में यकीन करे तो पहले अपने खुद के बच्चो  को यहाँ पढ़ाकर दृष्टांत स्थापित करे । 
        भारत की शिक्षा प्रणाली को बेहतर बनाने के लिये प्रयास कीजिये सिब्बल जी । पहले ग्रामीण अंचलो के विद्यालयों को मूलभूत सुविधाए उपलब्ध कराइये, सम्पूर्ण भारतवर्ष में शिक्षा का स्तर समान करिये और तब ये पद्धति लागू करिये । अन्यथा इससे छात्रो में और उनके अभिभावकों में असंतोष की भावना बढ़ जाएगी जो कि राष्ट्र के लिये और समाज के लिये हितकर नहीं होगी । 

Saturday, June 16, 2012

धृतराष्ट्र और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह



        किरण बेदी ने  प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तुलना महाभारत के धृतराष्ट्र से की है, जो काफी हद तक उचित भी है. दुर्योधन द्वारा किये गए किसी भी कार्य का धृतराष्ट्र ने पुत्र मोह के कारण विरोध नहीं किया. लेकिन हमारे माननीय प्रधानमंत्री के सामने कौन सा मोह है. क्या प्रधानमंत्री पद का मोह ? जिसके चलते वो सब कुछ आँख मूंदकर देखते रहते है . अगर कोरवौ  ने गलत किया था तो इतिहास आज भी दुर्योधन के साथ साथ  धृतराष्ट्र और भीष्म पितामह को भी उसके लिये दोषी मानता है क्योकि अन्याय करने वाले का साथ देना या उसे निर्विरोध होने देना भी उसमे भागीदारी करने जैसा ही है. प्रधानमंत्री कि स्थिति भी कुछ ऐसी ही है . वो गलत नहीं कर रहे है . लेकिन सभी गलत कार्य उनकी आँखों के सामने ही हो रहे है . इस प्रकार तो वो भी उतने ही दोषी हुए, जितने कि अन्य लोग.प्रधानमंत्री ने ये बयान दिया है की अगर वो दोषी पाए जाते है, तो वो राजनीति से संन्यास ले लेंगे . लेकिन जाँच करेगा कौन ? सीबीआई , जिस से निष्पक्ष जाँच की उम्मीद कम लोगो को ही  है. सीबीआई के पास पहले से ही इतने मामले है कि वो सुलझा नहीं पा रही है . वैसे भी सीबीआई पर गाहे-बगाहे  पक्षपातपूर्ण होने का आरोप लगता ही रहता है.

Friday, June 15, 2012

सत्ता किसके हाथ में



       ज़्यादातर देशो में  सत्ता को सुचारू रूप से चलाने का कार्य राष्ट्रपति में निहित होता है .  हमारे भारतवर्ष में ये अधिकार प्रधानमंत्री को दिए गए है . यहाँ पर सत्ता की बागडोर  प्रधानमंत्री के हाथो में है .  राष्ट्रपति तो मात्र हस्ताक्षर करने के लिये है . इस समय हमारे देश की  राष्ट्रपति  है श्रीमती  प्रतिभा देवी सिंह पाटिल और प्रधानमंत्री है डा० मनमोहन सिंह .  राष्ट्रपति के पास तो अधिकार है ही नही , लेकिन  प्रधानमंत्री  मनमोहन सिंह  क्यों असहाय है . ऐसी कौन सी मजबूरी है की वो हर निर्णय लेने से पहले सोनिया गाँधी की तरफ देखते है . क्या सोनिया गाँधी, जो सिर्फ कांग्रेस की अध्यक्ष है , का कद हमारे   प्रधानमंत्री  से  भी  ऊँचा  है .  यहाँ  तक  की  कांग्रेस के  प्रचार के लिये  लगाए गए पोस्टरों और बैनरों में भी पहले सोनिया गाँधी का और तत्पश्चात  प्रधानमंत्री  मनमोहन सिंह का चित्र छपा होता है .  क्या ये  प्रधानमंत्री की तौहीन नहीं है . क्या सत्ता वास्तविक रूप से सोनिया गाँधी के हाथो में है , एवं   प्रधानमंत्री और   राष्ट्रपति उसके कहे अनुसार कार्य करते है . क्या सिर्फ इसलिए की उन्होंने   डा० मनमोहन सिंह को  प्रधानमंत्री  और  श्रीमती  प्रतिभा पाटिल  को  राष्ट्रपति बनाकर उन पर उपकार किया है . पहले यहाँ ब्रिटेन के लोगो ने राज किया था . अंग्रेज लोग उपर बैठकर हुक्म देते थे और कुछ लोगो को थोड़े से अधिकार देकर  उन्ही के माध्यम से बाकी जनता पर अत्याचार कराते थे . इसी तरीके को अपनाकर अंग्रेजो ने संपूर्ण भारत पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था . क्या एक बार फिर से इतिहास  दोहराया जाने वाला है . पिछली बार अंग्रेजो के गुलाम बने थे , कही इस बार इटालियन लोगो के तो नहीं. जाने अनजाने में कही हम गुलामी की और तो नहीं बढ़ रहे है .

Wednesday, June 13, 2012

हडताल का तरीका




        किसी भी कार्य को अच्छे या बुरे, कानूनी या गैरकानूनी, संवैधानिक या असंवैधानिक  दोनो ही प्रकार से किया जा सकता है, वो कार्य चाहे जो भी हो । अब आप हडताल को ही ले ले । भारत मे आए दिन हडताल होती रहती है । सबसे ज्यादा जो हडताल सुनने मे आती है वो होती है मजदूरों की । मजदूरों की हडताल से सबसे ज्यादा प्रभावित भी गरीब तबके के लोग ही होते है । कभी- कभी तो मजदूरों को ना चाहते हुए भी हडताल का हिस्सा बनना पडता है और फ़ायदा होता है मजदूर संघ के नेताओ का । ज्यादातर  ये नेता लोग ही अपने फ़ायदे के लिए ही मजदूरों को हडताल पर जाने के लिए उकसाते है । 
हमारे देश के लोग विदेशियों की नकल करने मे बहुत ही आगे रहते है, लेकिन सिर्फ़ बुरी बातों की, बुरी आदतों की नकल । यहां तक कि अगर हमारे नेता भी कोई गलत काम करते है तो विदेशियों का उदाहरण देते है । ऐसा नही है कि विदेशों मे हडताल नही होती । हडताल  वहां भी होती है, लेकिन उसका तरीका यहां से भित्र होता है । हडताल  का उद्देश्य होता है अपना विरोध प्रकट करना । विदेशों मे लोग अपना विरोध प्रकट करने के लिए सिर पर काला कपडा लगाकर काम पर आते है । ये एक शांतिपूर्ण , कानूनी एवं संवैधानिक तरीका है । लेकिन भारत मे क्या होता है ? हडताल  के नाम पर सबसे पहले तो काम बंद कर दिया जाता है । उसके बाद विभित्र प्रकार के गैरकानूनी कार्य ,मसलन बंद, सडक जाम आदि मजदूर संघ के नेताओ द्वारा कराए जाते है । ये तरीका किसी भी दृष्टिकोंण से उचित नही है । लेकिन एक तथ्य यह भी है कि अगर यहां पर लोग काला कपडा लगाकर या अन्य किसी शांतिपूर्वक तरीके से काम पर जाते हुए विरोध प्रदर्शित करेंगे, तो हमारा गूंगा-बहरा प्रशासन उनकी बात सुनेगा ही नही । अगर लोग काम कर रहे है, तो प्रशासन की नींद मे कोई खलल नही पडता । मेरा तो आप लोगो से यही आग्रह है कि लोगो हडताल के दौरान अपना विरोध प्रदर्शित करने के लिए कानूनी एवं शांतिपूर्ण तरीका अपनाना चाहिये । एवं साथ ही साथ प्रशासन को भी लोगो के हितों को ध्यान मे रखते हुए उचित कदम उठाना चाहिये । तभी मेरा भारत, हमारा भारत महान बन सकता है ।
        
        जय हिंद, जय भारत । 

Monday, June 4, 2012

क्या राजनीति का स्वरूप बदल रहा है ?



सभी लोगो को अपने पुराने दिन बहुत अच्छे लगते है । इसका कारण यह है कि लोगो के जेहन मे सिर्फ़ अच्छी यादे रहती है । बुरी बातो को वो भुला देना चाहते हैं । लोगो को लगता है कि आज के समय की राजनीति मे सिर्फ़ पैसे वालो के लिये ही जगह है , वो पैसे वाले उद्योगपति या गुंडे कुछ भी हो सकते है । लोग मानते है कि पहले कि राजनीति मे ऐसा नही था । आप अपने मस्तिष्क पर थोडा जोर डालिये और याद कीजिये महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू जी को । आपको क्या लगता है ये लोग किसी गरीब परिवार से थे । बिल्कुल नही । ये दोनो महान व्यक्ति विदेशों में शिक्षा ग्रहण किये हुए थे । आप समझ सकते है कि जिस समय देश की अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर थी उस समय इन लोगों ने विदेशो मे शिक्षा ग्रहण की थी । आखिर क्यों यही लोग देश की राजनीति मे सक्रिय थे । उस समय भी भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे लोगो को सूली पर लटका दिया जाता था और आज भी कुछ ऐसा ही हो रहा है । फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि आज किसी को खुलेआम फ़ांसी नही दी जाती । पहले कुछ अच्छे नेता भी थे लेकिन आज तो राजनीति का अपराधीकरण हो गया है और अपराधीकरण की राजनीति हो गई है । ये एक चिंता का विषय है कि क्यों आज का युवा वर्ग राजनीति से दूर होता जा रहा है । क्यों अच्छे व्यक्ति राजनीति मे नही आना चाहते । इसकी वजह यही है कि वो लोग राजनीति की आड मे हो रहे अपराधों मे खुद को सम्मिलित नही करना चाहते है । 

Wednesday, May 23, 2012

आसमान छूते पेट्रोल के दाम


        रुपये की लगातार घटती कीमतों से सरकार बहुत चिंतित है । अभी 2-3 दिन पहले खबर आई थी कि अगर रुपयें की कीमत इसी तरह लगातार गिरती रही तो सरकार को ईंधन के दाम में बढोत्तरी करनी पडेगी । ये अंदेशा तो हमें पहले से ही था कि सरकार महंगाई की मार झेल रही जनता को और अधिक त्रस्त करने वाली है एवं सरकार का अगला कदम होगा पेट्रोल की कीमत में  बढ़ोतरी । लेकिन  बढ़ोतरी  साढे सात रुपये की हो जाएगी ये हमारी कल्पना में भी नही था । यह तो सर्वविदित है कि रुपए की कीमतें गिरने से तेल कंपनियों को भारी नुकसान हो रहा है । लेकिन उसका बोझ आम जनता पर डालने का क्या औचित्य है ?  क्या सिर्फ़ तेल की कंपनियो को नुकसान से बचाने के लिए आम जन की कमर तोड दी जाए ?क्या वर्तमान सरकार अभी भी आम आदमी के साथ होने का दंभ भर रही है ? 
        सरकार के इस कदम की लगभग सभी राजनीतिक दलों ने एक स्वर में निंदा की है और कहा है कि सरकार को पेट्रोल की कीमत मे बढ़ोतरी को वापस ले लेना चाहिये । अब देखना ये है कि सरकार का अगला कदम क्या होगा ? क्या कीमतो मे हुई इस अप्र्त्याशित बढ़ोतरी को सरकार वापस लेकर आम जनता की सहानुभूति की पात्र बनेगी ? या फिर सिर्फ़ दिखावे के लिये कीमतों मे नाममात्र की ही कमी की ज़ायेगी ।