Wednesday, July 25, 2012

ना काहू से दोस्ती , ना काहू से बैर



आखिर एक बार फ़िर से ये स्पष्ट हो गया है कि राजनीति मे ना तो कोई किसी का दोस्त होता है और ना ही दुश्मन । कल तक तो ममता बनर्ज़ी संप्रग का विरोध कर रही थी और विरोध भी इस तरह से कि लोगो को लगा था कि चाहे कुछ भी हो जाये मगर दीदी प्रणब मुखर्जी को समर्थन नही देगी । लेकिन आज ममता बनर्जी दादा के समर्थन मे बोल रही है । कैसे विश्वास करे जनता ऐसे नेताओ का, जो अपनी ही बात पर नही टिक पाते । ऐसा ही कुछ दिनों पहले मुलायम सिंह ने किया था । पहले तो मुलायम सिंह ने दीदी के साथ मिलकर डा0 कलाम के नाम पर सहमति जताई और कुछ समय बाद सोनिया गांधी के कहने पर प्रणब मुखर्जी को समर्थन देने की घोषणा कर दी । इस तरह अपनी ही बातो से पलटकर ये नेता लोग साबित क्या करना चाहते है । क्या जनता को बेवकूफ़ बनाने मे इन्हे आनंद मिलता है या फ़िर ये लोग चाहते है कि आम जन नेताओ पर यकीन करना ही छोड दे । कुछ समय और पीछे चले जाये तो राहुल गांधी का उदाहरण सामने आता है । अपने चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी  ने समाजवादी पार्टी का घोषणा पत्र फ़ाड दिया था । और आज सपा और कांग्रेस के मधुरतापूर्ण संबंध किसी से छिपे नही है । इन सब घटनाओ से तो यही स्पष्ट होता है कि ये नेता लोग अपने फ़ायदे के लिए और कुर्सी पाने के लिए किसी का भी साथ दे सकते है । क्या हम जाने-अनजाने मे अठारहवी सदी की और जा रहे है जहां पूरा भारत छोटे-छोटे टुकडों मे बटां हुआ था और इन छोटे-छोटे  प्रांतो के नेता अपने फ़ायदे के लिए किसी से भी मिलने मे नही हिचकिचाते थें । हमारे आजकल के नेता भी तो यही कर रहे है । 

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